Durga Kavach दुर्गा कवच: मां दुर्गा की कृपा और संरक्षण की एक अद्भुत शक्ति है। यह कवच भक्तों को भयहीनता, सुरक्षा, और आत्मविश्वास प्रदान करता है। इस लेख में, हम दुर्गा कवच के महत्व, उपयोग, और लाभों के बारे में जानेंगे।
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दुर्गा कवच का प्रयोग करने से भक्त मां दुर्गा की कृपा प्राप्त करते हैं और उनके जीवन में आने वाली समस्याओं से मुक्ति प्राप्त करते हैं।
इस कवच का धारण करने से व्यक्ति भयहीन होता है और सुरक्षित महसूस करता है।
दुर्गा कवच का प्रयोग आत्मविश्वास को बढ़ावा देता है और व्यक्ति को अपने कार्यों में सफलता प्राप्त करने में मदद करता है।
दुर्गा कवच का प्रयोग पूजा और ध्यान के साथ करने से भक्त आत्मा को शुद्ध करते हैं और मां दुर्गा के साथ संवाद करते हैं।
कवच का प्रयोग करने से व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है और उसका दिल सुरक्षित महसूस करता है।
इस कवच का प्रयोग आत्मा के विकास में मदद करता है और व्यक्ति को आध्यात्मिक दिशा में आगे बढ़ने में सहायक होता है।
कवच का प्रयोग मानसिक शांति और आत्मा की सांत्वना को बढ़ावा देता है।
दुर्गा कवच से शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है और व्यक्ति स्वस्थ रहता है।
कवच का प्रयोग वंश के सुख-संतान को बढ़ावा देता है और संतान सुख में मदद करता है।
दुर्गा कवच का प्रयोग पूजा और ध्यान के साथ करना चाहिए। इससे मानसिक और आत्मिक विकास होता है और भक्त दुर्गा मां के साथ एकाग्र होते हैं।
दुर्गा कवच के प्रयोग के साथ मंत्र जाप करने से उसके शक्ति और प्रभाव में वृद्धि होती है।
॥अथ श्री देव्याः कवचम्॥
ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्,
श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
ॐ नमश्चण्डिकायै।
॥मार्कण्डेय उवाच॥
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्।
यन्न कस्य चिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥1॥
॥ब्रह्मोवाच॥
अस्ति गुह्यतमं विप्रा सर्वभूतोपकारकम्।
दिव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्वा महामुने॥2॥
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥3॥
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥4॥
नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥5॥
अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥6॥
न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न ही॥7॥
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥8॥
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥9॥
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मी: पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥10॥
श्वेतरूपधारा देवी ईश्वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥ 11॥
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढया नानारत्नोपशोभिता:॥ 12॥
दृश्यन्ते रथमारूढा देव्याः क्रोधसमाकुला:।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥13॥
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥ 14॥
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुद्धानीथं देवानां च हिताय वै॥ 15॥
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥16॥
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्रि आग्नेय्यामग्निदेवता॥ 17॥
दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खङ्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥ 18॥
उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी में रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥ 19॥
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहाना।
जाया मे चाग्रतः पातु: विजया पातु पृष्ठतः॥ 20॥
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥21॥
मालाधारी ललाटे च भ्रुवो रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥ 22॥
शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शङ्करी ॥ 23॥
नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥ 24॥
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥ 25॥
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धारी॥ 26॥
नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥27॥
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चान्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥28॥
स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥ 29॥
नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुडे महिषवाहिनी॥30॥
कट्यां भगवतीं रक्षेज्जानूनी विन्ध्यवासिनी।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥31॥
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्रीरक्षेत्पादाध:स्तलवासिनी॥32॥
नखान् दंष्ट्रा कराली च केशांशचैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥33॥
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥ 34 ॥
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु॥35 ॥
शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥36॥
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥37॥
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥38॥
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥39 ॥
गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥40॥
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥ 41 ॥
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥42 ॥
पदमेकं न गच्छेतु यदिच्छेच्छुभमात्मनः।
कवचेनावृतो नित्यं यात्र यत्रैव गच्छति॥43 ॥
तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सर्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ॥44॥
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्
निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रमेष्वपराजितः।॥45॥
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्। ॥46॥
य: पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः॥47॥
जीवेद् वर्षशतं साग्रामपमृत्युविवर्जितः
नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः॥ 48॥
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले॥49॥
भूचराः खेचराशचैव जलजाश्चोपदेशिकाः
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। ॥ 50॥
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबला
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसा:॥ 51॥
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। ॥ 52॥
मानोन्नतिर्भावेद्राज्यं तेजोवृद्धिकरं परम्
यशसा वद्धते सोऽपी कीर्तिमण्डितभूतले ॥ 53 ॥
जपेत्सप्तशतीं चणण्डीं कृत्वा तु कवचं पूरा
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्। ॥54॥
तावत्तिष्ठति मेदिनयां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी |
देहान्ते परमं स्थानं यात्सुरैरपि दुर्लभम्। ॥55 ॥
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ॐ॥ ॥ 56॥
।। इति देव्या: कवचं सम्पूर्णम् ।।
दुर्गा कवच एक अत्यंत महत्वपूर्ण धारणा है जो हमें मां दुर्गा के आशीर्वाद और सुरक्षा प्रदान करता है। इसका प्रयोग विश्वास और भक्ति के साथ करने से हमारे जीवन में सुख, समृद्धि, और सम्पूर्णता आती है।
आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए, दुर्गा कवच का प्रयोग करें और अपने जीवन को सुखमय और समृद्ध बनाएं।
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